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इल्तुतमिश का शासन

   (1):कुतुबुद्दीन ऐबक

           2.आरामशाह(1210-1211 ई.) 

                                         
       कुतुबुद्दीन ऐबक मृत्यु के बाद उसका लड़का आरामशाह सिंहासन पर बैठा।वह एक अयोग्य शासक था प्रांतीय अधिकारियों तथा दिल्ली के तुर्क अमीरो ने उसे सुल्तान मानने से मना कर दिया। उन्होन बदायूँ के सूबेदार इल्तुतमिश को(जो ऐबक का दामाद था)दिल्ली का सुल्तान बनने के लिए आमंत्रित किया। इल्तुतमिश ने आमंत्रण स्वीकार कर सेना सहित दिल्ली पहुंचा तथा वहां उसे सुल्तान घोषित कर दिया। जब उसकी सूचना आरामशाह को मिली तो वह लाहौर से सेना सहित दिल्ली कि ओर बढा। दोनो के बिच दिल्ली के निकट जूद नामक स्थान पर निर्णायक युद्ध हुआ जिसमे आरामशाह पराजित हुआ जिसे बाद में मौत के घाट उतार दिया गया। 

इल्तुतमिश का शासन


           (3)इल्तुतमिश( 1211-1236) 

 प्राम्भिक जीवन: 

                        मिनहाज-ए-सिराज के अनुसार इस्तुतमिश इलबारी सरदार आलमखाँ का लड़ाका था । बचपन से ही इस्तुतमिश अत्यधिक सुन्दर और होनहार था और उसका पिता अपने अन्य पुत्रों की अपेक्षा उसे अधिक प्यार करता था । इससे कुपित होकर उसके भाइयों ने इल्तुतमिश को घोडों के एक व्यापारी को बेच दिया । घोडों के व्यापारी ने इस्तुतमिश को प्रधान काजी को बैच दिया । काजी के पुत्रों ने उसे एक दास-व्यापारी जमालुद्दीन को बेच दिया । उन्त में गोरी के कृपापात्र ऐबक ने इस्तुतमिश को खरीद लिया । इस्तुतमिश ने अपनी योग्यता पराक्रम और स्वामीभक्ति से ऐबक का विस्वास प्राप्त कर लिया और धीरे-धीरे उन्नति की ओर बढ़ने लगा । प्रारम्भ में उसे ' ' सर जानदार ' ' पद पर नियुवत्त किया गया, इसके बाद उसे " अमीर-ए-शिकार" बनाया गया । 1205 ई. में जब गोरी ने पंजाब के खोखरों के विरुद्ध अभियान किया था उसमें इल्तुतमिश ने असाधारण पराक्रम का परिचय दिया जिससे प्रसन्न होकर गोरी ने ऐनक को उसके साथ अच्छा व्यवहार काने तथा उसे दासता के बंधन सेमुक्त करने को कहा । जब ऐनक ने ग्वालियर दुर्ग पर अधिकार कर लिया तो इल्लुतमिश को वहाँ का दुर्गरक्षक नियुक्त किया। कुछ दिनों बाद ऐबक ने अपनी पुत्री का विवाह इस्तुतमिश के साथ कर दिया और बाद मे उसे बदायूँ का हाकिम नियुक्त किया गया । इस पद पर रहते हुए उसने गहड़वाल राजपूतों का दमन कि
या और अपनी रण-निपुणता के लिए ख्याति अर्जित की। ऐबक की मृत्यु के बाद जब लाहौर के अमीरों ने आरामशाह को सुल्तान बना दिया तो दिल्ली के तुर्क अमीरों ने अली इस्माइल के सहायता से इस्तुतमिश को दिल्ली आकर सुल्तान बनने के लिए आमंत्रित किया । तदनुसार इल्तुतमिश सुल्तान बन गया और आरामशाह को परास्त करके अपने सुल्तान पद को सुदृढ बना लिया। 

 इल्तुतमिश कि कठिनाइयाँ: 


                                    इस्तुतमिश सुल्तान तो बन गया परन्तु उसके सामने अनेक कठिनाईयाँ आ खडी हुई । उनमें से मुख्य इस प्रकार थीं- 

 ( 1 ) तुर्क अमीरों की समस्या: 

                                           ऐबक को भारत में नवस्थापित तुर्क राज्य को संगठित करने का समय नहीं मिल पाया था । उसकी मृत्यु के बाद विभिन्न क्षेत्रों में नियुक्त तुर्क अमीर दिल्ली के सिंहासन को हथियाने अथवा अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित काने की उथेड़बुन में लेग हुए थे ।बहुत-से तुर्क सरदार जो गोरी एवं ऐबक के समय में इस्तुतमिश से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त ये, इस्तुतमिश को सुल्तान बना देने से असन्तुष्ट थे और वे किसी राजवंशीय सरदार को दिल्ली के सिंहासन पर बैठाना चाहते थे । इन तुर्क सरदारों की यह माँग भी थी कि प्रशासन के सभी महत्त्वपूर्ण पदों पर केवल तुर्क सरदारों को ही नियुक्त किया जाये और भारतीय मुसलमानों को ऊँचे पद नहीं दिये जाएँ । सिन्ध और मुल्तान के सूबेदार कुबाचा ने ऐबक की मृत्यु के बाद अपने आप स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और भटिण्डा, सुरसती, कुहराम, लाहौर आदि क्षेत्रों पर अधिकार जमा लिया था । वह अपने आपको ऐबक का उत्तराधिकारी समझता थी।गजनी के ताजुद्दीन यल्दौज ने भारतीय प्रदेशों पर गजनी का दावा प्रस्तुत किया और इल्तुतमिश को अपना सूबेदार मानते हुए उसके लिए राजकीय चिन्ह भिजवा दिये।उस समय इस्तुतमिश को अपमान सहन कर उसके चिन्हो को स्वीकार करना पड़। इस्तुतमिश की सबसे मुख्य कठिनाई तुर्क सरदारो को परास्त करके उन्हें दिल्ली शासन के अन्तर्गत लाना था । 

(2 ) सेना का विश्वास प्राप्त करना:


                                             दूसरी समस्या तुर्क सेना का विस्वास प्राप्त 'करना था । यह संयोग की बात है कि दिल्ली में तैनात तुर्क सैना के जिस सेनानायक अली इस्माइल ने इस्तुतमिश को आमंत्रित किया था, वह अब इस्तुतमिश का विरोधी बन गया था और तुर्क सेना अभी भी उसके नियन्त्रण में थी ।

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 ( 3 ) हिन्दू सरदारो की समस्या: 

                                          ऐबक के शासनकाल में बहुत-से हिन्दूसरदारों ने दिल्ली की अधीनता मान कर वार्षिक कर चुकाने का वचन दिया था । परन्तु ऐबक की मृत्यु के बाद उनमें से बहुत-से सरदार विद्रोही हो गये और कर भेजना बन्द कर दिया । कई क्षेत्रों के सरदारों ने संगठित होकर अपने-अपने क्षेत्रो से तुर्क अधिकारियों को खदेड़ दिया । जालौर, रणथम्भौर,ग्वालियर आदि क्षेत्र दिल्ली से स्वतन्त्र हो गये । उनकी स्वतन्त्रता दिल्ली के तुर्क राज्य के लिए गम्भीर संकट थी । दोआब क्षेत्र में भी तुर्क शासन लड़खड़ाने लग गया था । 

 (4 ) उत्तर-पश्चिमी सीमा की समस्या:


                                                    इस्तुतमिश के सामने उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा भी एक गम्भीर चुनौती थी । मध्य एशिया की राजनीति में मंगोलों के प्रवेश से भारी उथल पुथल मची हुई थी । मंगोलों ने ख्वारिज्म के शाह को परास्त कर दिया था । ख्वारिज्म का राजकुमार जलालुद्दीन भागकर सिंन्धु तट पर आ पहुँचा और मंगोल नेता चंगेज खाँ उसका पीछा करता हुआ किसी भी समय भारत में प्रवेश कर सकता था ।



 ( 5 ) खोखरों की समस्या: 

                                    झेलम और सिन्ध के मध्य में आबाद लडाकू खोखरों की प्रारम्भ से ही शत्रुता चली आ रही धी । खोखरों कि शत्रुता के कारण उत्तर-परिचय सीमा कि सुरक्षा असुरक्षित प्रतीत होने लगी थो । क्योंकि ख्वारिज्म के शाह ने खोखरों से मैत्री करके दिल्ली के अधीन वाले कुछ क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया था ।

 (6) दुर्बल राज्याधिकार: 

                                इल्तुतमिश एक दास का दास था । विशुद्ध तुर्क सरदारों र्का दृष्टि मे उसका साम्राज्य पर अधिकार अनुचित जात थी और वे उसको सुल्तान मानने को तैयार नहीं थे । इस्लामी कानून के हिसाब से भी इस्तुतमिश की स्थिति कमजोर थी और धर्मिक नेताओ का व्यवहार भी उसके पक्ष में नहीं था । अत: इक्तुतमिश के लिए अपने राज्याधिकार को सुदृढ़ बनाना अति आवश्यक था। 

                     समस्याओं का समाधान


 ( 1 ) विरोधी तुर्क अमीरों का दमन: 

                                                इल्तुतमिश ने आरामशाह पर निर्णायक विजय प्राप्त कि थी । फिर भी बहुत से विरोधी तुर्क अमीरों ने उसे सुल्तान मानने से इन्कार कर दिया और दिल्ली के समीप अपने सैनिक दस्त एकत्र कर लिये इस्तुतमिश ने इन सरदारों पर अचानक करके उनको शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया । अधिकांश विरोधियों को मीत के घाट उतार दिया गया । जो बच गये उन्हींने इल्तुतमिश की अधीनता स्वीकार कर ली । 

 (2).चालीसा मण्डल का गठन: 

                                          अपनी स्थिति को सुदृढ बनाने की दृष्टि से इस्तुतमिश ने बड़ी कूटनीति से काम लिया । उसने अपने प्रति निष्ठावान दासों का एक क्या दल संगठित किया । चूँकि इसमें चालीस लोग सम्मिलित किये गये थे, इसलिए इसे ' चरगान ' अथवा ' चालीस दास अमीरों का दल' कहा जाने लगा । इन लोगों को प्रशासन के मुख्य पदों पर नियुक्त किया गया । चूँकि दल के सदस्यों की उन्नति इल्लुतमिश की कृपा पर निर्भर मी अत: ये लोग हमेशा उसके प्रति निष्ठावान बने रहे । 

 ( 3 ) यल्दीज का दमन: 

                                जब इस्तुतमिश सुल्तान बना ही था तब गजनी के शासक ताजुद्दीन यल्दोज ने इसे गजनी राज्य के अन्तर्गत भारतीय प्रदेशों का शासक मानते हुए उसके लिए राजकीय चिन्ह भिजवाये थे । चूँकि उस समय इस्तुतमिश यल्दीज से शत्रुता मोल लेने की स्थिति मैं नहीं था अत्त: उसने राजकीय चिन्ह स्वीकार का लिये थे । परन्तु अपमान का प्रतिशोध लेने को ताक में रहा । उधर यल्दौज ने कुबाचा पर आक्रमण करके लाहौर तथा पंजाब के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार जमा लिया । इस्तुतमिश ने इस अवसर पर तटस्थता की नीति अपनाई और अक्सर पाकर सूरसती, कुहराम और भण्टिडा पर अपना अधिकार जमा लिया । 1215 ई में ख्वारिज्म के शाह ने यल्दौज को परास्त करके गजनी से खदेड दिया । यल्दौज लाहौर से भाग गया और उसने थानेश्वर तक पंजाब के क्षेत्र पर अधिकार जमा लिया । उसका इरादा दिल्ली पर आक्रमण करने का था ।अत: इस्तुतमिश ने आगे बढकर उसका सामना करने का निश्चय किया । तराईन के ऐतिहासिक मैदान मे दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ जिसमें यल्दौज पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया । कुछ दिनों बाद यल्दौज का वध कर दिया गया ।
इल्तुतमिश का शासन

 ( 4 ) कुबाचा का दमन:

                                 नसिरुद्दीन कुबाचा गोरी का एक दास था । ऐबक की भाँति उसने भी अपने स्वामी की सेवा की थी और गोरी ने उसे उच्छ का सूबेदार नियुक्त किया था । कुबाचा अपनी योग्यता तथा पराक्रम से मुल्तान, सिबिस्तान क्या समस्त सिंन्ध्र प्रदेश पर अपना अधिकार लिया था । उसने सुल्तान ऐबक की दो पुत्रियों से विवाह किया और ऐबक की अधीनता स्वीकार करे ली थी । ऐबक की मृत्यु के बाद उसने अपने आपकी स्वतंत्र घोषित करके राजचिन्ह धारण कर लिया । इस्तुतमिश के लिए प्रबल प्रतिद्वन्द्घ था । गजनी के शासक यल्दौज ने उससे लाहौर धिन लिया । परन्तु जब यल्दौज इल्तुतमिश से पराजित हो गया तो स्थिती का लाभ उठाकर कृबाचा ने लाहोर पर पुन: अपना अधिकार जमा लिमा । 1217 ई. मे इल्तुतमिश ने कुबाचा पर आक्रमण करके उससे लाहौर छीन लिया । पराजित कुबाचा ने उस समय इल्तुतमिश कि अधीनता स्वीकार कर ली और वार्षिक कर चुकाने का वचन दिया । फिर भी, कुबाचा एक स्वतंत्र शासक कि भाँति व्यवहार करता रहा और इस्तुतमिश को भी उससे भय पना रहा । इसी बिच चंगेज खाँ से पराजित होकर ख्वारिज्म का जलालुद्दीन मंगबरनी भागे करे पंजान आ पहुँचा । उसने कुबाचा के राज्य में लूटमार करके उसे भारी क्षति पहुँचाई । उधर मंगोलों ने मुल्तान में लूटमार करके उसको क्षति पहुँचाई । जलालुद्दीन और मंगोलों की वापसी के बाद इल्तुतमिश ने कुबाचा की कमजोर स्थिति का लाभ उठाते हुए एक साथ उच्छ और मुल्तान पर आक्रमण कर दिया । कुबाचा निराश हो गया । उसने भाग कर सिन्ध के दुर्ग में आश्रय लिया । उच्छ और मुल्तान पर इल्तुतमिश का अधिकार हो गया । इसके बाद सेनानायक जुनैदी को भक्कर का घेरा डालने का काम सोंपा गया । दो मास की घेराबन्दी ने कुबाचा की स्थिति को दयनीय बना दिया । उसने सन्धि की याचना की परन्तु इल्तुतमिश ने बिना शर्त आत्मसमर्पण करने को कहा । इसे से कुबाचा को सन्देह उत्पन हो गया और वह एक नाव में बैठकर भाग निकला । परन्तु उसकी नाव डुबो दी गई और कुवाचा का अन्त ही गया । इस प्रकार, इस्तुतमिश को अपने दूसरे प्रतिद्वदृद्वी से छुटकारा मिल गया और सिन्थ, उच्छ, मुल्तान तथा पंजाब जेसे विस्तृत क्षेत्र पर उसका अधिकार हो गया । इससे दिल्ली सल्तनत की शक्ति और साधनों का भी विकास हुआ ।

 (5)मंगोल आक्रमण का संकट:

                                          1221 ई. मे इल्तुतमिश के सामने मंगोल आक्रमण का भयंकर संकट आ खड़ा हुआ। मध्य एशिया के रेगिस्तान में बसने वाली मंगोल जाति को चंगेज खाँ ने संगठित करे तुर्किस्तान, ईराक, मध्य एशिया और फारस को जित लिया था। चंगेज की मंगोल सेना के सामने ख्वारिज्म का शक्तिशाली साम्राजय भी धराशायी हो गया । ख्तरिज्म का शाह कैस्पियन सागर की तरफ झा क्या और उसका युवराज जलालुद्दीन मंगबरनी भारत की और भाग आया । युवराज का पिछा करते हुए मंगोल भी भारत कि और आ धमके । जलल्लुदीन ने कुबाचा के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार करे लिया और बाद में पंजाब के खोखरों से मित्रता स्थापित करके पंजाब पर अपना अधिकार जमा लिया । इसके बाद उसने इल्तुतमिश की सेवा में अपना राजदूत भेजकर मंगोलों के विरुद्ध सैनिक सहायता की अपील की । ऐसी स्थिति में इस्तुतमिश ने कूटनीतिक से काम लिया और विनम्रतापूर्वक यह कहला भेजा कि भारत की यहाँ कि जलवायु आपके निवास के अनुकूल नहीं है अत:आप पंजाब खाली करके वापिस लौट जाये। इसके साथ ही इल्तुतमिश ने भावी युद्ध की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए जोर-शोर के साथ सैनिक तैयारिया शुरु करे दि।

(6) बंगाल विजय: 

                      ऐबक कि मृत्यु के बाद बंगाल का सूबेदार अलीमर्दान एकस्यज्य स्वतंत्र शासक बैठा और उसने दिल्ली को वार्षिक कर भेजना बन्द कर दिया । अपनी सत्ता को मजबूत बनाने की दृष्टि से उसने अनेक ख़लजी सरदारों का क्रूरता के साथ दमन किया और बहुतों को मौत के घाट उतार दिया । परिणामस्वरूप अधिकांश खलजी सरदार उसके शत्रु बन गये और दो वर्ष के भीतर ही उन्होंने अलीमर्दान का वध कर दिया । इसके बाद उन्होंने हिसामुद्दीन इवाज को अपना शासक बनाया। इवाज ने बिहार पर आक्रमण का उस पर अपना अधिकार कायम किया। इस्तुतमिश ने एक शक्तिशाली सेना के साथ पूर्व की ओर अभियान किया । बिना किसी प्रतिरोध के दक्षिणी बिहार पर उसने अधिकार कर लिया । इसके बाद वह बंगाल की तरफ बढा । यद्यपि इवाज नै युद्ध की तैयारियाँ कर रखी थी परन्तु ठीक समय पर उसने अपना निर्णय बदल दिया और इस्तुतमिश के साथ सन्धि कर ली । सन्धि के अनुसार इवाज ने इस्तुतमिश की अधीनता स्वीकार कर ली, बिहार का क्षेत्र इस्तुतमिश को सोंप दिया, वार्षिक कर चुकाने का वचन दिया और स्वतन्त्र शासक के राजकीय चिन्हों और उपाधियों को भी त्याग दिया । इससे सन्तुष्ट होकर सुल्तान इस्तुतमिश वापिस लौट गया । लौटते समय वह मलिक जानी को बिहार का सूबेदार नियुक्त कर गया । परन्तु इस्तुतमिश के लौटते ही इवाज ने बिहार पर आक्रमण कर दिया और मलिक जाती को खदेड कर बिहार को पुन: अपने अधिकार में ले लिया । इससे क्रोधित होकर इस्तुतमिश ने अपने लडके नसिरुद्दीन महमूद शाह को जो कि अवध का सूबेदार भी था, इवाज के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने का आदेश दिया । महमूद शाह एक योग्य पराक्रमी युवक सेनानायक था और अवध फे हिन्दू सरदारो' का दमन करके काफी यश कमाया था । 1226 ईं. मे जब इवाज पूर्व की और किसी अन्य युद्ध मे' उलझा हुआ था, नसिरुद्दीन महमूद ने अचानक तेजी के साथ इवाज की राजधानी लखनौती पर आक्रमण कर उस पर अधिकार जमा तिया । इवाज ने पलट का नसिरुदीन पर आक्रमण किया, परन्तु वह युद्ध में मारा गया और बंगाल पर दिल्ली सल्तनत का अधिकार हो गया। इल्तुतमिश ने बंगाल का शासन भी महमूद को सौप दिया । परन्तु 1229 ईं में राजकुमार महमूद की मृत्यु हो गई और खिलजी सरदारों ने बंगाल में विद्रोह करे दिया । उसमें से एक मलिक इख्तियारुदीन बल्का बंगाल का सुल्तान बने गया।इल्तुतमिश को 1230 ई. में बंगाल पर पुन:अभियान करना पड़ा। 

(7)पंजाब के खोखरो का दमन:

                                         भयंकर संघर्ष के बाद खोखरो का दमन का दिया गया और स्यालकोट, जालंधर तथा नंदना के क्षेत्रो पर अधिकार का करे लिया । खोंखरों पर नियंत्रण कि दृष्टि से इन क्षेत्रों में नई सैनिक चौकियाँ कायम कि और नासिल्दीन ऐबिगोन को नंदना में नियुक्त किया गया । 

 ( 8 ) राजपूत एवं हिन्दू शासको से युद्ध: 

                                                       1226 ई. में उसने राजपूतों के शक्तिशाली दुर्ग रणथम्भौर पर अधिकाप कर लिया । 1230 ई. तक उसकि सैनाओं ने जालौर, अजमेर, बयाना, तहनगढ़ तथा साँभर भी जीत लिया ।

 ( 9) खलीफा द्वारा सम्मान प्राप्त करना : 

                                                      यद्यपि इस्तुतमिश ने अपनी सैनिक शक्ति के बल पर सिंहासन के अन्य दावेदारों को परास्त करके दिल्ली के सिंहासन पर अपनी स्थिति को सुदृढ बना लिया था, फिर भी इस्लामी कानून के हिसाब से उसका राज्याधिकार निर्बल था क्यों कि वह एक दास रह चुका था । अत: उसने बगदाद के खलीफा, जिसे मुस्लिम जगत का सर्वोच्च धर्माधिकारी एवं शासनाधिकारी माना जाता था, से अपने राज्य को वैधानिक मान्यता प्रदान करने का निवेदन किया । बगदाद के तत्कालीन खलीफा अल इमाम मुस्तसिर बिल्ला ने इस्तुत्तमिश को दिल्ली-सल्लनत का सुल्तान स्वीकार कर लिया और उसको "नासिर अमीर-उल-मौमनीत' ' (खलीफा का सहायक) की उपाधि प्रदान कि तथा उसके लिए ' ' खिल्लत ' ' ( पोशाक ) भी भेजी । इस घटना का अत्यधिक राजनीतिक महत्व है । खलीफा की स्वीकृति से उसका वैधानिक पक्ष मजबूत हो गया और मुसलमानों के लिए उसकी आज्ञाओं की अवज्ञा धर्म कि अवहेलना के समान हो गई । अब उन लोगों का मुँह बन्द हो गया जो उसे दास मानकर उसके राज्याधिकार की आलोचना किया करते थे । खलीफा द्वारा प्रदत्त सम्मान से मुस्लिम संसार में भी इस्तुतमिश का मान-सम्मान बढ क्या ।


                       इल्तुतमिश कि मृत्यु 



बानीयाना ( बयाना ) अभियान के समय इल्तुतमिश बीमार हुआ। नहीं हो सका ।अप्रैल, 1236 हैं. में उसकी मृत्यु हो गयी ।

                     इल्तुतमिश का मूल्यांकन

      

              इल्तुतमिश एक अत्याधिक धार्मिक प्रवृती वाला इंसान था उसने मुद्रा में सुधार करवाया वह एक हिंदुओं के प्रति अन्याय प्रिय शासक था। उसने कुतुब मीनार का अधूरा कार्य पूरा करवाया था तथा उसने कई मस्जिदों का निर्माण करवाया था।



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इल्तुतमिश से सम्बन्धित विडीयो:https://youtu.be/3jxdiWsrXDc                    Download PDF


                    तुर्कि सफलताओ के कारण

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